अप्रतिम कविताएँ
पाबंदियाँ
होंठ पर पाबन्दियाँ हैं
गुनगुनाने की।
               निर्जनों में जब पपीहा
               पी बुलाता है।
               तब तुम्हारा स्वर अचानक
               उभर आता है।
अधर पर पाबन्दियाँ हैं
गीत गाने की।
               चाँदनी का पर्वतों पर
               खेलना रुकना
               शीश सागर में झुका कर
               रूप को लखना।
दर्पणों को मनाही
छबियाँ सजाने की।
               ओस में भीगी नहाई
               दूब सी पलकें,
               श्रृंग से श्यामल मचलती
               धार सी अलकें।
शिल्प पर पाबन्दियाँ
आकार पाने की।
               केतकी सँग पवन के
               ठहरे हुए वे क्षण,
               देखते आकाश को
               भुजपाश में, लोचन।
बिजलियों को है मनाही
मुस्कुराने की।
               हवन करता मंत्र सा
               पढ़ता बदन चन्दन,
               यज्ञ की उठती शिखा सा
               दग्ध पावन मन।
प्राण पर पाबन्दियाँ
समिधा चढाने की।
- बालकृष्ण मिश्रा
श्रृंग -- शिखर, चोटी; अलकें -- बाल; समिधा -- यज्ञ में जलाने की लकड़ी
Ref: Naye Purane, 1999

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इस महीने :
'तोड़ती पत्थर'
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'


वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर—
वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,
..

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'एक अदद तारा मिल जाये'
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एक अदद तारा मिल जाये
तो इस नीम अँधेरे में भी
तुमको लम्बा ख़त लिख डालूँ।

छोटे ख़त में आ न सकेंगी
पीड़ा की पर्वतमालाएँ
और छटपटाहट की नदियाँ।
पता नहीं क्या वक़्त हुआ है,
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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