अप्रतिम कविताएँ
लाचारी
न जाने क्या लाचारी है
आज मन भारी-भारी है

           हृदय से कहता हूँ कुछ गा
           प्राण की पीड़ित बीन बजा
           प्यास की बात न मुँह पर ला

यहाँ तो सागर खारी है
न जाने क्या लाचारी है
आज मन भारी-भारी है

           सुरभि के स्वामी फूलों पर
           चढ़ये मैंने जब कुछ स्वर
           लगे वे कहने मुरझाकर

ज़िन्दगी एक खुमारी है
न जाने क्या लाचारी है
आज मन भारी-भारी है

           नहीं है सुधि मुझको तन की
           व्यर्थ है मुझको चुम्बन भी
           अजब हालत है जीवन की

मुझे बेहोशी प्यारी है
न जाने क्या लाचारी है
आज मन भारी-भारी है
- रमानाथ अवस्थी
Poet's Address: 14/11, C-4 C Janakpuri, New Delhi
Ref: Naye Purane, 1998

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इस महीने :
'तोड़ती पत्थर'
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'


वह तोड़ती पत्थर;
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वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार
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नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,
..

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एक अदद तारा मिल जाये
तो इस नीम अँधेरे में भी
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छोटे ख़त में आ न सकेंगी
पीड़ा की पर्वतमालाएँ
और छटपटाहट की नदियाँ।
पता नहीं क्या वक़्त हुआ है,
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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